Wednesday, June 2, 2021

ढलती उम्र

आज न वो खिलौना है,अब नही वो बचपन है।
जहाँ पर सुकून की छाव मिलें नही आंगन है।

ढल रही ये उम्र आज किस दौर से पता नही,
जहां में जिंदगी तो है मगर नही जीवन है।

मोह माया के चक्कर में बंधा इंसान जो,
मन में कपट तन पर लगा कैसा ये चंदन है।

अब वो नही संस्कार बचा जहाँ पर कोई भी,
साथ बैठे परिवार,ऐसा किसका का मन है।

जो दौलत से मान बढ़ाता,कैसा समय आज,
इंसान सब कुछ मान बैठा, सब कुछ बस धन है।

अब वक्त और हालात बदले इस दौर में भी,
कही पर भूखा तो कही पर सुकून में तन है।
:-मोहित जागेटिया

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